Krishna ki chetavni Ramdhari Singh Dinkar रामधारी सिंह दिनकर । रश्मीरथी

Krishna ki chetavni Ramdhari Singh Dinkar रामधारी सिंह दिनकर । रश्मीरथी

 Krishna ki chetavni Ramdhari Singh Dinkar रामधारी सिंह दिनकर । रश्मीरथी

Krishna ki chetavni Ramdhari Singh Dinkar रामधारी सिंह दिनकर । रश्मीरथी

रामधारी दिनकर जिन्हें आज़ाद भारत में राष्ट्र्कवि का दर्जा दिया गया है । वे हमेशा राष्ट्रहित के बारे में लिखते थे ।

इसलिए आज वे जन जन  के कवि हैं । आज मैं उनकी रचना रमीरथी का वो अंश आपके साथ Share करने जा रही हूँ ।

वर्षों तक वन में घूम घूम

विघ्नों वाधा को चूम चूम

 

जिसमें कृष्ण युद्ध को रोकने के लिए पांडवो की तरफ़ से प्रस्ताव लेकर जाते हैं कि आप हमें सिर्फ़ पाँच गाँव दे दो ।

 

हम उसी से गुज़ारा कर लेंगे । लेकिन कौरवों को ये बात अच्छी नहीं लगी और वे नाराज़ हो गए  और बोले दूत आया है

कृष्ण… इसी को बाँध लो उसके बाद पांडव क्या कर पाएँगे । तब कृष्ण भगवान नाराज़ हो जाते हैं

और अपने विकराल रूप में आ जाते है

और कुछ  इस प्रकार चेतावनी देते है । इस कविता में शब्द है, लय है , संगीत है, भावना है 

और जीवन का एक अग़ल ही रूप है 

 

कृष्ण की चेतावनी …याचना नहीं अब रण होगा 

 

वर्षों तक वन में घूम घूम,

विघ्नों वाधा को चूम चूम,

सह धूप – घाम , पानी पत्थर 

पांडव आए कुछ और निखर

सौभाग्य न सब दिन सोता है

देखें, आगे क्या होता है 

 

मैत्री की राह बताने को 

सबको सुमार्ग पर लाने को

दुर्योधन को समझाने को 

भीषण विध्वंस बचाने को 

भगवान हस्तिनापुर आए 

पांडव का संदेशा लाए 

 

दो न्याय अगर तो आधा दो, 

पर , इसमें भी यदि बाधा हो, 

तो दे दो केवल पाँच ग्राम,

रक्खो अपनी धरती तमाम ।

हम वही ख़ुशी से खाएँगे 

परिजन पे असि न उठाएँगे 

 

दुर्योधन वह भी दे न सका,

आशीष समाज की ले न सका 

उलटे, हरि को बाँधने चला,

जो था असाध्य साधने चला 

जब नाश मनुज पर छाता है 

पहले विवेक मर जाता है 

कृष्ण की चेतावनी …याचना नहीं अब रण होगा 

 

हरि ने भीषण हुंकार किया 

अपना स्वरूप विस्तार किया,

डगमग – डगमग दिग्गज डोले 

भगवान कुपित होकर बोले – 

ज़ंजीर बढ़ाकर साध मुझे,

हाँ हाँ दुर्योधन बाँध मुझे 

 

यह देख गगन मुझमें लय है, 

यह देख पवन मुझमें लय है 

मुझमें विलीन झंकार सकल 

मुझमें लय है संसार सकल 

अमरत्व फूलता है मुझमे

संहार झूलता है मुझमें 

 

उद्याचल मेरा दीप्त भाल,

भूमंडल वक्श्स्थल विशाल,

भुज परिधि बंध को घेरे हैं 

मेनाक मेरु पग मेरे हैं 

दिपते जो ग्रह नक्षत्र निकर 

सब है मेरे मुख के अंदर ।

 

द्रग हों तो दृश्य आकांड देख 

मुझमें सारा ब्रह्मांड देख 

चर अचर जीव जग क्षर अक्षर, 

नश्वर मनुष्य सुर जाती अमर।

शत कोटि सूर्य शत कोटि चंद्र,

शत कोटि सरित, सर सिंधु मंद्र ।

 

 

शत कोटि विष्णु, ब्रह्मा महेश,

शत कोटि विष्णु जलपति , धनेश,

शतकोती रूद्र ,शत कोटि काल,

शत कोटि दंडधार लोकपाल ।

ज़ंजीर बढ़कर साध इन्हें 

हाँ । हाँ दुर्योधन बाँध इन्हें 

 

कृष्ण की चेतावनी …याचना नहीं अब रण होगा 

 

 

भूलोक, अटल पाताल देख, 

गत और अनागत काल देख,

यह देख जगत का आदि सृजन 

यह देख महाभारत का रण

मृतकों से पति हुई भू है 

पहचान, इसमें कहाँ तू है 

 

 

अम्बर में कुन्तल जाल देख 

पद के नीचे पाताल देख 

मुट्ठी में तीनो काल देख 

मेरा स्वरूप विकराल देख 

सब जन्म मूझीसे पाते हैं 

फिर लौट मुझी में आते हैं 

जिव्याह से कढ़ती जवाल सघन 

साँसों में पाता जन्म पवन 

पड़ जाती मेरी दृष्टि जिधर,

हँसने लगती है सृष्टि उधर 

मैं जभि मूँदता हूँ लोचन,

छा जाता चारों ओर मरण ।

 

 

बाँधने मुझे तो आया है

ज़ंजीर बड़ी क्या लाया है 

यदि मुझे बंधना चाहे मन 

पहले तो बाँध अनंत गगन 

सुने को साध न सकता है

वह मुझे बाँध कब सकता है 

 

कृष्ण की चेतावनी …याचना नहीं अब रण होगा 

 

 

 

हित वचन नहीं तूने माना 

मैत्री का मूल्य न पहचाना 

तो ले मैं भी अब जाता हूँ 

अंतिम संकल्प सुनता हूँ 

याचना नहीं अब रण होगा 

जीवन -जय या कि  मरण होगा ।

 

 

टकरायेंगे  नक्षत्र निकर,

बरसेगी भू पर बहग्नि प्रखर,

फ़ण शेषनाग का डोलेगा 

विकराल काल मुँह खोलेगा 

दुर्योधन रण ऐसा होगा ।

फिर कभी नहीं जैसा होगा ।

 

भाई पर भाई टूटेंगे,

विष-बाण बूँद – से छूटेंगे,

वायस- शृगाल सुख लूटेंगे 

सोभाग्य मनुज के फूटेंगे ।

आख़िर तू भुशायी होगा 

हिंसा का पर, दायी, होगा 

 

थी सभा सन्न सब लोग डरे

चुप थे या थे बेहोश पड़े 

केवल दो नर न आघाते थे,

धरतराष्ट्र – विदुर सुख पाते थे 

कर जोड़ खड़े प्रमुदित 

निर्भय, दोनों पुकारते थे  “जय जय “

 

 

 

 

 

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न जाने क्या है इस खामोशी का सबब

कुछ नहीं कहना है कुछ नहीं सुनना है

तनहाँ सी ज़िंदगी

तुम भी क्या ख़ूब कमाल करते हो 

हमारे देश की महान नारी 

क्य वाक़ई में भारत आज़ाद हो गया है 

ये ख़ामोशी ये रात ये बेदिली का आलम 

कभी कभी अपनी परछाईं से भी डर लगता है 

मैंने चाहा था चलना आसमानों पे 

कविता लिखी नहीं जाती लिख जाती है 

अभी अभी तो उड़ान को पंख लगे हैं मेरी 

 

 

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